परब्रह्म का स्वरुप

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परब्रह्म की श्रेष्ठता चार बातो से सिद्ध होती है १- वह सबको धारण करने वाला है २- वह सबसे बडा है ३- वह समस्त प्रकृतियों का स्वामी, शासक एवं संचालक है तथा प्रकृतियाँ इससे संचालित है ४- वह इस प्रकृतियों से भिन्न भी है इस प्रकार परब्रह्म सबसे श्रेष्ठ एवं विलक्षण है ।
जब वह परब्रह्म अपनी कारण अवस्था मे रहता है तो उसकी परा, एवं अपरा प्रकृति रूप दोनो शक्तियाँ सृष्टि से पूर्व उसमे अभिन्न रूप से विधमान रहती हुई अप्रकट रहती है यही उसकका निराकार स्वरूप उसकी कारण अवस्था है जब वह किसी कार्य रूप मे स्थित होता है तो उसकी विभिन्न शक्तियाँ भिन्न भिन्न नाम रूपों मे प्रकट होती है यही साकार रूप उसकी कार्य अवस्था है ।
जिस प्रकार प्रकाश और सुर्य तेज दृष्टि से अभिन्न है वैसे ही परब्रह्म और उसकी शक्ति अभिन्न होते हुए भी उनका अलग अलग वर्णन किया गया है।
सगुणब्रह्म ( कार्य ब्रह्म) तथा निर्गुण ब्रह्म (परब्रह्म) ब्रह्म के भिन्न भिन्न दो स्वरूप नही है बल्कि वही इन दोने लक्षणों से युक्त है दो रूपो वाला नही है जिस प्रकार विधुत अप्रकट रूप है तथा अग्नि उसका प्रकट रूप है अप्रकट ही प्रकट होता है तथा प्रकट का आधार अप्रकट ही है इसलिए विधुत और अग्नि जयोति के दो रूप नही है
वह परब्रह्म अपनी जड़ चेतन रूप दोनो प्रकृतियों अपरा तथा परा से सर्वथा विलक्षण है प्रकृतियों को क्षर और अक्षर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ प्रकृति औक पुरूष कहा गया है। जिनका विस्तार ही यह दृश्य जगत् है ।
परमात्मा ही कर्मफल दाता है अन्य कोई नही यह प्रकृति उस परब्रह्म की ही शक्ति है जो उससे अभिन्न है सांख्य मत की भांति इसकी स्वतन्त्र सत्ता नही है इस परब्रह्म की ही परा, प्रकृति, चेतन समुदाय है तथा अपरा प्रकृति ही जड़ समुदिय है दोनो उस परब्रह्म की ही शक्तियाँ है।
यह परब्रह्म सत् चित एवं आनन्द स्वरूप है वह नित्य एवं शाश्वत है प्रकृति अनित्य है शाश्वत नही है वह सत् के ज्ञान के अभाव में नितमय जैसी प्रतीत हेती है। यही भ्रम है जो बन्धन का कारण है सत् का ज्ञान होने पर प्रकृति ( जीवात्मा) तथा अपरा प्रकृति (जड़ प्रकृति) दोनो पर शासन करने वाला है प्रकृति स्वतन्त्र नही है 

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