"सेक्स: शरीर, मन और आत्मा का समन्वय"
जिसे आज 'सेक्स' कहा जाता है, वह दरअसल केवल एक क्रिया नहीं है।
यह मनुष्य जीवन के सबसे गहन, सबसे सूक्ष्म और सबसे परिवर्तनकारी अनुभवों में से एक है।
लेकिन दुर्भाग्यवश, इसे या तो एक भौतिक सुख की तरह समझा गया, या पूर्ण वर्जना की तरह दबा दिया गया।
और यहीं से शरीर, मन और आत्मा इन तीनों के बीच जो संवाद हो सकता था, वह टूट गया।
भारतीय परंपरा में काम को कभी तुच्छ नहीं माना गया।
काम यानी इच्छा जीवन की वह ऊर्जा जो न केवल सृष्टि की प्रेरणा बनती है,
बल्कि चेतना को गहराई से झकझोरने वाली एक शक्ति है।
यह शक्ति केवल संतानोत्पत्ति के लिए नहीं, आत्म-प्राप्ति के लिए भी जागृत की जा सकती है।
सेक्स, शरीर का विषय अवश्य है लेकिन शरीर कभी अकेला अनुभव नहीं करता।
जब कोई दो शरीर मिलते हैं, तो केवल त्वचा का स्पर्श नहीं होता;
वहाँ स्पंदन होता है, गति होती है, ऊर्जा का संचार होता है।
स्पर्श के माध्यम से मन अपने भीतर की संवेदनाओं को उभारता है, और आत्मा उस क्षण में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है।
शरीर, इस यात्रा का प्रवेश द्वार है।
यह स्पर्श करता है, प्रतिक्रिया देता है, सिहरता है, और फिर धीरे-धीरे उस अनुभूति को मन तक पहुँचाता है।
मन वहाँ कल्पनाएँ रचता है, स्मृतियाँ जोड़ता है, अपेक्षाएँ बनाता है और वही अपेक्षाएँ उसे सुख या दुख की ओर ले जाती हैं।
लेकिन जब मन शुद्ध होता है जब वह न भय में होता है, न वासना में
तब सेक्स केवल उत्तेजना नहीं रहता, वह एक ध्यान बन जाता है।
ऐसे क्षणों में व्यक्ति सिर्फ “किसी के साथ” नहीं होता वह “स्वयं के भीतर” होता है।
शरीर की लय जब मन की शांति से मिलती है, और मन की मौनता जब आत्मा की उपस्थिति को स्पर्श करती है,
तब सेक्स एक योग बनता है। यही तंत्र का मूल दर्शन है।
तंत्र कभी वासना का समर्थन नहीं करता।
वह कहता है “वासना को दबाओ नहीं, लेकिन साधो।
उसे समझो, उसमें प्रवेश करो, और देखो कि उसकी गहराई में भी वही ऊर्जा है जो ध्यान की ओर ले जाती है।”
यही ऊर्जा कुंडलिनी कहलाती है, जो मूलाधार से सहस्रार तक उठती है और व्यक्ति की चेतना को बदल देती है।
इसलिए सेक्स को केवल शारीरिक संतुष्टि या मानसिक सुख तक सीमित करना,
उसे उसकी वास्तविक ऊँचाई से गिरा देना है।
वह केवल आनंद नहीं, आत्म-बोध का एक माध्यम हो सकता है यदि उसमें प्रेम, स्वीकृति और जागरूकता हो।
लेकिन समाज ने सेक्स को कलंक बना दिया।
उसे या तो छुपाया गया, या बाज़ार बना दिया गया।
स्त्री के शरीर को या तो नियंत्रित किया गया, या उपभोग की वस्तु बना दिया गया।
पुरुष को सिखाया गया कि मर्दानगी दबाव, अधिकार और प्रदर्शन से सिद्ध होती है।
इस दमन ने शरीर को जड़, मन को कुंठित, और आत्मा को खोखला कर दिया।
सेक्स केवल तब पवित्र बनता है जब उसमें दोनों की स्वीकृति हो न केवल “हाँ” कहने की, बल्कि पूरी चेतना से उपस्थित रहने की।
जहाँ शरीर केवल माध्यम होता है, मन केवल मार्ग होता है, और आत्मा लक्ष्य बन जाती है।
वहाँ कोई दबाव नहीं होता, कोई साबित करने की कोशिश नहीं होती, कोई जीत-हार नहीं होती।
वहाँ केवल एक समर्पण होता है स्वयं की सीमाओं से परे जाने का,
अपने अहंकार को छोड़कर किसी के साथ ऊर्जा में एक होने का।
और यही समर्पण धीरे-धीरे व्यक्ति को बाहर की भोगेच्छा से भीतर की समाधि की ओर ले जाता है।
सेक्स को अगर इस रूप में समझा जाए,
तो वह न तो कोई अपराध रहेगा, न कोई मनोरंजन
बल्कि वह बन जाएगा एक साधना।
एक ऐसी साधना जिसमें शरीर शुद्ध होता है, मन मौन होता है, और आत्मा स्पंदित होती है।
आज जब समाज या तो सेक्स से डरता है, या उसका बाज़ारीकरण करता है
तो आवश्यक है कि हम एक तीसरा मार्ग खोजें।
वह मार्ग जो न वर्जना है, न विकृति
बल्कि सम्यक अनुभूति है, एक समग्र समझ है,
जहाँ शरीर को उसका सम्मान मिले,
मन को उसकी शांति मिले,साभार Facebook
और आत्मा को उसकी उड़ान।
सेक्स तब एक “क्रिया” नहीं रहेगा
वह बन जाएगा एक स्थिति,
एक अनुभव,
एक योग।
और यही है उसकी अंतिम, गहन, और परम वास्तविकता।
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