वनभोज: प्रकृतिवाद की महान परम्परा है जो सदियों पुरानी है
।
तनावमुक्त जीवन और उत्तम स्वास्थ्य की कुंजी है यह वनभोज और जब यह पातालकोट में हो तो फिर इसके क्या कहने..
आप सभी ने एक मास्टर की याने कुंजी के विषय मे जरूर सुना होगा। मास्टर की एक ऐसी चाबी होती है जिससे कोई भी ताला खोला जा सके। ठीक ऐसे ही यह वनभोज है जिसे में आपके हर सवाल का मास्टर स्ट्रोक कह सकता हूँ। यकीन न आये तो सवाल दागिये जबाब तैयार मिलेगा। पोस्ट महत्वपूर्ण है इसीलिये यादों के पिटारे से निकालकर पुनः पोस्ट कर रहा हूँ। ये उस दौर की यादों का पिटारा है, जब गुरूदेव दीपक आचार्य जी का परोक्ष मार्गदर्शन मुझे मिलता रहता था। चलिये विषय पर लौटते हैं।
यहाँ क्या क्या है पहले ये बता देता हूँ। खाने में है पातालकोट की घाटियों में तैयार किया गया स्वादिष्ट बैगन भर्ता, बाटी/ पानगे, मक्के की रोटी, आलू-बैगन-भेजरे की सब्जी, बल्लर की दाल, चावल। ये सब कुछ पारंपरिक थालियों में परोसा गया जो कि माहुल के ताजे पत्तो से बनाई गई। हर व्यक्ति को पहले थाली और प्लेट बनाना सिखाया गया फिर अपनी अपनी थाली में भोजन सम्पन हुआ। अब एक से मेरा काम नही होता इसीलिये मेरी थाली 2 के बराबर है 😜।
यूँ तो अक्सर हमारे हाथ का ही कच्चा पक्का स्वादिष्ट भोजन हर बार हम ग्रहण करते थे लेकिन इस बार तो पातालकोट की कुशल माताओं और बहनों के हाथों बने भोजन से मन, जिव्हा और पेट सभी तृप्त हो गये। इस खाने को और अधिक स्वादिष्ट बनाते हैं यहाँ के सुंदर दृश्य, बहुमूल्य औषधियाँ और इनके साथ नदी का शीतल जल, जिसमे घंटे भर तैराकी के बाद भूख अपने चरम तक पहुँच जाती है। ऐसे में हम सभी ने एक एक बाटी बिना किसी सब्जी, दाल या चटनी के अपने पेट मे उतार दी पता ही नही चला। वैसे इतना पौष्टिक भोजन 3- 4 किलो मीटर पहाड़ चढ़ने और उतरने के लिए जरूरी भी होता है। नादियों के जल को बिना छाने पीना और गर्मागर्म रेत में लोटपोट होना भी इस मजेदार वनभोज का एक हिस्सा होता है। भोजन के बाद बची जूठी पत्तलें जानवर खा लेते हैं तो मन मे एक सुकून सा रहता है कि कुछ भी व्यर्थ नही गया। ये वनभोज हम सभी के लिए बहुत आवश्यक हैं। वैसे और भी कई कारण हैं कि हमे ऐसे आयोजन करते रहना चाहिए, आइये जानते हैं उन्हें भी..।
आप बुढ़ापे में ढेर सारा धन कमाने के बाद कभी न कभी डॉक्टर साहेब के चक्कर मे पड़ ही जाते होंगे। यदि वे बड़े वाले हस्पताल के बड़े साहब रहे तो फिर आपकी जेब ढीली होना निश्चित है लेकिन अगर वे आपके करीबी मित्र या शुभचिंतको में से एक हुये तो थोड़ी राहत मिलती है। दरियादिली दिखाते हुए वे एक शार्ट ट्रिक यानि फंडा बताते हैं कि ये दवाई गोली ज्यादा काम की नही हैं, फिट रहना है तो दिन में 2 बार सुबह और शाम आसपास टहल आइये।
अब टहलने से आराम मिलता है या नही, इसे पता करने के लिए तो आपको टहल ही आना चाहिए। लेकिन मैं जरा दूसरे किसम के फायदे बताने के मूड में हूँ। ये जो इंसानी जीव है न वो बहुत डरपोक टाइप का होता है। अकेले-अकेले इससे कुछ होता नही है। इसीलिए फिर साथी तलाशने में जुट जाता है, और देखते ही देखते कुछ साथ मे भटकने को तैयार बीमार और सताये हुये प्राणी उसे मिल जाते है। फिर साथ घूमते टहलते भटकते न जाने वे कब दोस्त बन जाते हैं उन्हें भी पता नही होता है, तब जाकर इन्हें पता चलता है कि काश ये पहले कर लेते तो फला फला बीमारी लगती ही नही। दोस्त बनाना भी एक फायदा ही हुआ न?
अब बुढ़ापे में प्रदूषण भरे माहौल में सड़क के किनारे टहलने को ही हर मर्ज की दवा मत मान लीजियेगा। ये भी सत्य है लेकिन आपको अभी परम सत्य की तलाश करना है। तो चलते हैं परम सत्य की खोज में, मेरे यानि डॉ. Vikas Sharma के साथ...
ऊपर की लाइन पढ़कर आपको ये तो समझ आ गया होगा कि सही समय मे घूमते फिरते रहेंगे तो बाद में अस्पताल के चक्कर नही लगेंगे। लेकिन आजकल एक नए तरह की चिंता युवाओं में माफ कीजियेगा बुढ़ापे की दहलीज पर खड़े युवाओं में देखने को मिलती है, और वो है लाइफ सेटल करने की टेन्शन। अब पढ़ने लिखने में आधा जीवन झौकने के बाद पता चलता है कि इससे अच्छा तो बिजनेस है, और जिस उम्र में पहले के माता पिता बच्चे की शादी कर दिया करते थे, ठीक उस उम्र में आजकल के युवाओं को अब शादी ब्याह की बातें भी नीरस सी लग रही होती हैं, और वहीं पर पता चलता है कि आप Bp और सुगर के पेशेंट भी हो गए हैं, तब मन ये सोचकर परिवार बसाने की ओर राजी हों जाता है कि इस बीमारी में देखभाल करने वाला कोई तो होना चाहिये यानि अब शादी कर ही लेना चाहिये। अब समझौते के साथ समझदारी वाले काम करने की टेंशन अलग होती है। आप यकीन नही मानेंगे, ऐसे में फिर यही घूमना फिरना ही नये जीवन का स्टार्टअप साबित होता है। खैर वर्तमान समय मे यहीं पर एक खुशहाल जीवन की नींव रखी जाती है। याने घूमने फिरने वाले लोग अधिक जिंदादिल हुआ करते हैं।।
लेकिन ये सब फालतू की बातें यहाँ क्यों करना अपने पास भरपूर समय है। जीवन को शुरू से ही प्रकृति से जोड़ कर रखें। घर पर छोटा मोटा बगीचा तैयार करें। आसपास उपलब्ध जीव जंतुओं के प्रति आदर का भाव रखें उनका सम्मान और संरक्षण करें। मन मे नकारात्मकता और तनाव दोनो ही कभी नही पनपेंगे।
अब इन सब चीजों की शुरुवात कहाँ से करें, तो इसका उत्तर है ये वनभोज। समय समय और अपने परिवार के साथ, दोस्तों के साथ या जिस स्थान पर आप कार्य करते हैं।उनके लोगों के साथ वनभोज पर जायें। प्रकृति की गोद मे कुछ घंटे सो आयें। इससे तनाव मिटेगा, साथ ही पैदल चलने से शरीर की फ्री सर्विसिंग भी हो जाएगी। वनभोज में वहीं उपलब्ध संसाधनों और भोजन का प्रयोग करें ताकि प्रकृति के प्रति आपके मन मे श्रद्धा पैदा हो सके। ज्यादा दूर की बात तो नही करता कभी अपने घर के बाहर से आसमान में टकटकी लगाकर देखिए और इस दृश्य को अपनी याद में कैद करने की कोशिश कीजिये। अब इसके बाद कभी जंगल जाएं और रात में इसी पल को पुनः दोहरायें तो आप पायेंगे कि इन दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। तो सोच लीजिये देखने मे जब इतना अंतर है तो खाने पीने, रहने, भटकने और जीवन जीने में कितना अंतर नही होता होगा। ऐसे वनभोज से साथ मिलकर कार्य करने की आदतों के विकास होता है जो आजकल शहरी जीवन मे कम हो देखने को मिलता है।
ऐसे ही भटकने में अड़चन लगे तो थोड़ा सा धार्मिक हो जाएं क्योंकि हिन्दू धर्म मे बहुत से ऐसे तीज त्योहार हैं जो आपको जंगलों में जाकर वनभोज का अवसर प्रदान करते हैं। अगर आप बड़े इवेंट की तलाश में हैं तो फिर नागद्वार यात्रा, महादेव यात्रा, नर्मदा परिक्रमा और पंचक्रोसी यात्रा पर निकल पड़ें। वरना घर के नजदीक रहकर वन महोत्सव, आमला नवमी और वट सावित्री आदि मनायें। मेरे गुरूदेव हमेशा कहते थे कि भटकने में ही मजा है, मंजिल में क्या रखा है। इसीलिए #भटको...
डॉ. विकास शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई
जिला छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
#दीपकआचार्य #हर्बलवर्बल Deepak Acharya #पातालकोट #वनभोज #विकासशर्मा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें